प्रॉमिस डे पर
ईश्क़ की बुनियाद वादों और विश्वास पर बननी शुरू होती है। दुःख यह है कि ईश्क़ की पूर्णता वादाखिलाफी या वादाशिकन होकर ही होती है। वो ईश्क़ ही क्या जिसमें कशिश बाक़ी न रहे। कोई रोता न रहे।
मन पुराने दिनों को याद करके रोने लगे कि हमने किसी और की खुशी के लिए अपने ईश्क़ का गला घोंटा। वो मजबूरी कोई भी हो सकती है। वो घर खानदान का दबाव हो सकता है, वो किसी का इमोशनल अत्याचार हो सकता है, वो व्यापार का नफा नुकसान हो सकता है।
ये सारी बातें जब हो जाती हैं और ईश्क़ की बलि हो जाती है।….. तो उस ईश्क़ के लिए किए गए सारे वादे याद आते हैं। तो मन में लगता है कि खुद से ही अब शिकायत होने लगी है। खुद से वादाखिलाफी का इल्ज़ाम लगाने मन होने लगता है। हमने खुद के लिए वादा शिकन किया है। वो वादा जो पूरा होना असंभव था उसका ख्वाब ही क्यों देखने गए। हम प्यार ही क्यों करने गए जिसको निभाना ही मुश्किल था।
दिन अब ढलान पर जा चुका है। धरती से आसमान तक सूरज का कहीं नामोनिशान नहीं है। बस क्या कहें अपने मन को..! लेकिन ऐ वादा शिकन तुम्हारे मन की अब भी शाम नहीं है। तुम्हारी चाहत से पहले तुम्हारी आहट तक नहीं है। मेरी शिद्दत नहीं लोगों की मुरौबत की ताबीर चाहिए तुमको।
बस ऐसा लगता है कि हाथ से दामन छुड़ाया गया। और लगातार ही छुड़ाया जा रहा है। दिल को तोड़ कर जाना था तो आना ही नहीं था। और तो और हमसे न मिलने के हज़ारों बहाने थे। वहीं मिलने के लिए एक बहाना ही न मिला। बहाना खोजना पड़ता है। खोजने से भगवान भी मिल जाते हैं। लेकिन तुम न मिल सकी। मेरी आँखों में वो पहली मुलाक़ात की महीन डोर अब भी मेरे मन से तुम्हारे मन पर डोरे डालती फिर रही है। मन रोने लगता है। और आगे वादों को याद करते हुए खुद से खुद की आपबीती बताता है।
ईश्क में सबसे बड़ा दुःख यही होता है कि जो बातें कमिटमेंट के तौर पर कही गईं और उन्हें पूरे करने के बजाय कैंसिल करना पड़ता है। और ये सबब हर एक के ईश्क़ में होता है। वादा तो उम्र भर का होता है लेकिन फ़िज़ा कुछ ऐसी रचना रचती जिसके आगे वादाशिकन यानी वादा खिलाफ़ी करना बेहद ज़रूरी हो जाता है। कई एक कारण हो जाते हैं।
कभी रो के मुस्कुराए, कभी मुस्कुरा कर रोये
जब भी तेरी याद आई बस तुझे भुला के रोये।।
एक तेरा ही नाम था जिसे हज़ार बार लिखा,
जितना लिख के खुश हुए, उससे ज़्यादा मिटा के रोये।।
हकलाते हुए लफ्ज़ निकल रहे हैं आज,
यक़ीनन दिल पर कोई गहरी चोट हुई है।
आज तुम तुम्हारे साथ हो बस वही काफ़ी है,
ज़िन्दगी में थोड़े से तो अच्छे लम्हे मिले हैं, बाकी तो माफ़ी है।।
ज़िन्दगी कभी निम सी कड़वी, कभी मीठी टॉफी है
बस इस वक़्त को सम्भल जाओ, यही काफ़ी है।।
आसमान में चमकते हुए सितारे तो सभी देखते हैं। लेकिन सिर्फ टूटते हुए तारे को देख हम दुआएँ और सपने सेंकते हैं। कुछ चीजों की कीमत उनके टूटने पर बढ़ जाती है। जैसे कि दिल, सपने, रिश्ते और हम। वादों का टूटन ईश्क़ का सबब है। इतिहास गवाह है इसका। न जाने कब कोई अपवाद बने जिसके ईश्क़ का वादा पूरा दिखे। कब ईश्क़ में मुस्कुराते हुए चेहरों का वादा पूरा हो। वादे पूरे होना ही तो ईश्क़ की मंज़िल है.! क्या ईश्क़ को अपनी मंज़िल मिलने का हक़ कभी नहीं मिलेगा.?