तुम रहो न रहो तुम्हारा फसाना रहे

कुछ लोग ज़िंदादिली की मिसालें होते हैं। बेबाक़ी के किस्से होते हैं। रहमदिली के गायक होते हैं। औऱ कुछ मोहब्बत के सरगम होते हैं। लेकिन जो ये सब होते हैं वो नाम है डॉ0 राहत इंदौरी।

डॉ राहत इंदौरी के निधन की खबर मिलते ही आंखों के सामने एक यादगार रात याद आ गयी। 15 अक्टूबर 2012 की रात। स्थान, बनारस का बेनियाबाग का मैदान। मौका था इंडो पाक मुशायरे का। रात के तकरीबन 3 बज चुके थे। लगभग 30 शायरों ने अपने कलाम पढ़ चुके थे। पूरा बेनिया का मैदान भरा हुआ था। बारी आई राहत साहब की। एक शेर की गुर्राती हुई आवाज़ पूरी फ़िज़ाओं में गूँजी;
मेरे अश्कों ने कई आँखों में जल-थल कर दिया,
एक पागल ने बहुत लोगों को पागल कर दिया।।

इसके बाद ज़ोरदार तालियां जो मिनटों तक बजती ही रहीं। ऐसा लग रहा था कि एक सन्नाटे में अचानक से किसी सबको एकसाथ झकझोर दिया हो। उबासी ले रहे दर्शक, श्रोता एकदम ताज़े हो गए।

उन्होंने अपने चिर परिचित अंदाज़ में शेर की अगली लाइन कही,

अपनी पलकों पर सजा कर मेरे आँसू आप ने,
रास्ते की धूल को आँखों का काजल कर दिया।।

इसके बाद
मैं ने दिल दे कर उसे की थी वफ़ा की इब्तिदा,
उस ने धोका दे के ये क़िस्सा मुकम्मल कर दिया।।

इस ग़ज़ल के बाद उन्होंने अनेक ग़ज़लों के शेर कहे और कुछ फरमाइशों को भी पूरा किया। लोग तल्लीन होकर बेरोकटोक बस उनको सुनते ही रहे। उनके पहले अनेक शायरों ने तरन्नुम में शायरियाँ और गज़लें सुनाईं लेकिन जो तराने उनकी तहक शैली में सुनने वालों की मिल रहे थे वो शायद तरन्नुम की शैली में नहीं थे।

नायाब लबो लहजे के मालिक शायर राहत इंदौरी का वाराणसी से भी 22 साल का अटूट रिश्ता रहा है। बेनियाबाग का मैदान मुल्क की शायरी के इस नायाब कोहिनूर की एक आवाज़ पर झूम उठता था। 

राहत साहब को मैं कवर करने के लिए बैठा था। बस मन में एक गुजारिश हो रही थी कि कैसे राहत साहब से एक बार विशेष बात हो जाये, जिससे कि मेरी एक्सक्लुसिव खबर मुकम्मल हो जाये। मेरी गुज़ारिश मन में ही घूम रही थी। फिर भी मानो मेरी इल्तिज़ा उनतक पहुँच गई। तकरीबन भोर के चार बजे होंगे, मुशायरा खत्म हुआ। राहत साहब मंच से उतरे और मीडिया लेन से बाहर निकलने लगे।

मैं किनारे ही बैठा था। मेरे नज़दीक आये तो संस्कार वश उनके अदब में खड़े होकर उनका सज़दा किया। वो रुके, और एकदम निराले अंदाज में हमसे पूछा, ख़बरनवीस हो? बिखरे बाल, धुंधलाई आंखों से हमने पलके झुकाकर हाँ में गर्दन झुका दी।

इसके बाद उन्होंने वो बात कह दी जिसकी मुझे उम्मीद न थी। उन्होंने कहा कि-
तो बरखुरदार, हमें भी छाप देना भई। बड़ी मेहनत लगती है, ग़ज़ल कहने में।
तो हमने तुरन्त उनसे दो मिनट माँगा। बड़े लोग हमेशा बड़े होते हैं। इसका प्रमाण उस दिन राहत साहब ने दिया। उन्होंने तुरंत कहा चलो मेरी गाड़ी में बैठ जाओ, साथ होटल चलते हैं।
हमको ऐसा लगा कि मानो मुझे ग़ज़ल के मोमिन स्वयं निमंत्रण दे रहे हैं वरदान लेने के लिए। मैंने बिना समय गंवाए ही अपनी गाड़ी वहीं छोड़कर उनकी कार में बैठ गया।
लहुराबीर के एक होटल में वो टिके थे। हमने साथ ही चाय पी। बात बात में उन्होंने अपनी गज़लें सुनाईं। जिसमें से हमको कुछ अभी याद आ रही हैं,
हाथ अभी पीछे बंधे रहते हैं चुप रहते हैं,
देखना ये है तुझे कितने कमाल आते हैं।।
चाँद सूरज मिरी चौखट पे कई सदियों से
रोज़ लिक्खे हुए चेहरे पे सवाल आते हैं।।

कुछ ही देर में मुझे लग ही नहीं रहा था कि मेरी बातचीत एक लीजेंड से हो रही है। वो एकदम से दोस्ताने अंदाज़ में आ चुके थे।
दिलों में आग लबों पर गुलाब रखते हैं
सब अपने चेहरों पे दोहरी नक़ाब रखते हैं।।
हमें चराग़ समझ कर बुझा न पाओगे
हम अपने घर में कई आफ़्ताब रखते हैं।।

उन्होंने सियासत के सवाल पर सिर्फ ये लाइनें सुनाईं,
शहर क्या देखें कि हर मंज़र में जाले पड़ गए,
ऐसी गर्मी है कि पीले फूल काले पड़ गए।।

आगे भी सुनाया,

आँख में पानी रखो होंटों पे चिंगारी रखो
ज़िंदा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो।।
राह के पत्थर से बढ़ कर कुछ नहीं हैं मंज़िलें
रास्ते आवाज़ देते हैं सफ़र जारी रखो।।
एक ही नद्दी के हैं ये दो किनारे दोस्तो
दोस्ताना ज़िंदगी से मौत से यारी रखो।।

फिर मेरी हिम्मत बढ़ी। हमने भी उनसे एक फरमाइश कर दी। तो उन्होंने बिना समय गंवाए ही सुनाया,

सिर्फ़ ख़ंजर ही नहीं आँखों में पानी चाहिए
ऐ ख़ुदा दुश्मन भी मुझ को ख़ानदानी चाहिए।।
मैं ने अपनी ख़ुश्क आँखों से लहू छलका दिया
इक समुंदर कह रहा था मुझ को पानी चाहिए।।

फिर हमने उनकी एक नज़्म गुनगुनाई क्योंकि उस नज़्म के बोल बनारस पर सटीक बैठते हैं। फिर हमने राहत साहब से सवाल पूछा- “कोई इस ख़्वाब की ताबीर तो बतलाये, किसलिए ख़्वाब में आते हैं बनारस वाले”, राहत इंदौरी साहब का जवाब आप भी देखिए-

इन्हें कुल्हड़ न दिखाओ, इन्हें कुल्हड़ न दिखाओ,
तुमको मालूम नहीं कितने घाटों पर नहाते हैं बनारस वाले.
बाग़ की सैर तो इक बहाना है इनका,
तितलियाँ ढूढ़ने जाते हैं बनारस वाले.
दिन में देते हैं हिदायत कि सुधर जाओ मियां,
रात को आकर पिला जाते हैं बनारस वाले.
अपना किरदार बनाने में जुटे रहते हैं,
यूँ तो साड़ी भी बनाते हैं बनारस वाले।

आज उनके जाने की खबर मिली तो ऐसा लगता है कि कोई अपना बेहद खास चला गया। जबकि मेरी और उनकी महज कुछ घण्टों की ही मुलाकात हुई। और इस बात को भी कई साल गुज़रने को आये। पर, वो बात और वो रात एकदम ताज़ा हैं ज़ेहन में।

राहत साहब को देने के लिए मेरे पास सिर्फ मेरे कोरे शब्द हैं। अपनी शब्द साधना से राहत साहब को सलाम करता हूँ!

अब अगर मौत आये तो क्या बात हो
हम रहें ना रहें हमारा फसाना रहे।।
प्यार लब पे तेरा, याद दिल में तेरी,
हुस्न आँखों में हो, दम निकलता रहे।।
अब अंतिम सफ़र में ज़रा भी ग़म नहीं,
तुम हमारे हो, कोई कुछ भी कहता रहे।।

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