पन्द्रह अगस्त पर आज़ादी का तराना बचपन से सुनते हुए बड़े हुए हैं। पहले तो आजादी का मतलब तो बस मोतीचूर का लड्डू और कागज़ का लहराता तिरंगा था।
दशक बीते तो समझ ने भी आज़ादी की परिभाषा बदली। अब आज़ादी के मायने दूसरे थे। हाथ में फर्स्ट क्लास की डिग्री मन में बड़ा काम करने की तमन्ना और हक़ीक़त ठोकरों से भरी थी। तब इस आज़ादी के नए स्वरूप दिखने लगे। आज़ादी का मतलब डिग्री और हुनर के साथ जुगाड़ भी हो गया था।
आज़ादी का मतलब रोज़ रोज़ी के लिए नोटों पर अशोक स्तम्भ और बापू की फोटो को खर्च होती ज़िन्दगी और पन्द्रह अगस्त को लालकिले पर लहराता तिरंगा, सड़कों पर भारत माता की जय और स्कूल में विंध्य हिमाचल यमुना गंगा, ही समझ में आता है।
सवाल ये है कि क्या इतनी सी आजादी पर्याप्त है? क्या केवल इतनी ही, सिर्फ इतनी सी आजादी के लिए वो जनेऊधारी तिवारी, कंपनी बाग में अकेले ही बरतानियों से लड़ गये थे? और तो और, वो 23 साल के सलोने सरदार भारत माँ का चोला बसंती रंग में रंगते हुए फांसी चढ़ गए?
क्या केवल कुछ मीटर कपड़े के लिए नेताजी सुभाष बाबू ने हिटलर को आंख दिखाई और सातों समंदर में भँवर उठा थी? और मोहन बापू ने सिर्फ नोट पर छपने के लिए विलायत की बैरिस्टरी छोड़ कर अंतिम इंसान का वसन धारण किया था? क्या इसीलिए ही तिलक ने अपने सिर पर बदस्तूर लाठियाँ खाई थी? या यूँ कहें कि अंग्रेजी मॉब लॉन्चिंग को हंसते हुए सहा था?
हमने बहुत आंसू बहा लिये। अपनी आंखों में भरपूर पानी भर लिए। उनकी वीरगाथाओं पर। बहुत मेले लगा लिये अपनों की चिताओं पर। आज़ादी के परवानों पर। अब इन नज़ारों से जरा आगे बढ़ना होगा।
हमको तो अब संविधान के पहले पन्ने की पहली वाली लाइन “वी द पीपुल….” को दोबारा पढ़ना होगा। हमें समझना होगा जहां आजादी का मतलब जिस डिक्शनरी में केवल फ्रीडम लिखा है वो सारे शब्दकोश अब व्यर्थ हैं। मेरे भारत में आजादी के एक या दो नहीं बल्कि 135 करोड़ अर्थ हैं।
आजादी तो वो है जिसे पैरों को फ़टी बेवाईयों और छालों का डर ना रहे और शकील और बानो को शिवालों का स्वतंत्र आसरा रहे। आजादी तो वो है जब ज़िन्दगी के दरख्त में सपने बेहिचक फलें औऱ टूटी हुई चप्पलों के साथ डिजाइनर जूते भी साथ चलें।
आजादी तो वो है जब झुके हुए अरमानों का मुकद्दर बदल जाये और झोपड़ पट्टी के दिल से महलों और हवेलियों का डर निकल जाए। असली आजादी तो वो है जब घोसले की चिड़िया ग़ैर बराबरी का पिंजड़ा तोड़ दे, और “क ख ग”, “ए बी सी” से डरना छोड़ दे।
आजादी तो वो है जब शांति का तराना का गाते हुए किसी गले से खून ना आये और आमों और अमरूदों के मौसम में बारूदों की बू ना आये।
आखिर हम अब कब तक अतीत की जमी धूल का सज़दा करते रहेंगे, भूत में की गई गलतियों को चंदन बनाकर माथे पर सजाते रहेंगे। अगर हमें अमर जवान ज्योति को 24×7 जलाए रखना है तो उसकी जड़ों में अपनी जवानी का ईंधन भरना होगा। सन सैंतालीस की मेम्बरशिप को अब 2020 में रिनिवल करना होगा।
बिंदास और बैखौफ जीना हमसब का पूरा अधिकार है, पूरा हक है। और ये हक एकदम बुनियादी है। इसीलिए तो अब और घबराओ मत बस बढ़ते रहो, थोड़ा ही चलने पर आगे अगले मोड़ पर सुनहरी आजादी है।