क्या ब्लैक डेथ ने दी थी मानव विकास को नई दिशा?

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महामारी संसार के साथ ही इंसानों में भी काफी कुछ बदल देता है. कुछ बदलाव तो तात्कालिक होते हैं जो बहुत ही स्पष्ट तौर पर दिखाई देते हैं. लेकिन कई बदलाव दूरगामी होते हैं. एक डीएनए विश्लेषण (DNA Analysis) में वैज्ञानिकों ने पाया है कि 14वीं सदी में दुनिया में कोहराम मचाने वाली ब्लैक डेथ महामारी (Black Death Pndemic) के जीविविज्ञान संबंधी प्रभाव आज भी इंसानों में कायम हैं. इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने इस बीमारी से बचे लोगों की क्रब से अवशेषों के डीएनए विश्लेषण कर ये नतीजे हासिल किए. इससे उन्हें उम्मीद है कि वे इंसानों की प्रतिरोधक क्षमता (Immune System) में हुए और बदलावों को समझने में मदद मिल सकती है.

प्रतिरोधी तंत्र पर असर
ऐसा नहीं है कि यह सब इसलिए है कि इस बीमारी के रोगाणु आज भी सक्रिय हैं, लेकिन चूंकि घातक और मारक महामारी हमारे प्रतिरोधी तंत्र में अनुकूलता को शुरू कर देती है जो सैकड़ों साल तक विकसित होती रहती है. जरूरी नहीं है कि ये बदलाव लंबे समय में लाभाकरी ही हों. कुछ इसमें हमारे लिए अच्छी नहीं भी साबित हुए हैं.

आज भी वही जीन्स पर प्रभाव अलग
हालांकि कुछ जीन्स जो प्लेग में प्रतिरोध बढ़ाने के लिए जिम्मेदार थी वे भी वशांनुगत तरीके पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ीं, वैज्ञानिकों ने पाया कि वही जीन्स आज क्रोहनस रोग और आर्थराइटिस जैसे  ऑटोइम्यून स्थितियों को बढ़ाने के  लिए भी जिम्मेदार हैं. पड़ताल के नतीजे सुझाते हैं कि महामारी अप्रत्याशित हो सकती है और कई बार बहुत घातक भी,  लेकिन उसके लंबे समय के प्रभाव पीढ़ियों तक रहते हैं.

बहुत ही विनाशक महामारी
14वीं सदी के मध्य में ब्लैक डेथ मानव इतिहास में सबसे ज्यादा तबाही मचाने वाली बीमारी मानी जाती है जिसमें यूरोप, एशिया और अफ्रीका में करोड़ों लोगों की जान ले ली थी. यह येरसीनिया पेस्टिस नाम के एक बैक्टीरिया से फैली थी. इसमें इंसान पिस्सुओं के जरिए संक्रमित हुआ करते थे. जिससे संक्रमण के एक ही दिन के भीतर ही मौत हो जाती थी.

प्राकृतिक चयन पर दबाव
इस तरहकी प्रभावी संक्रामक बीमारियां विशेषकर इंसानों के लिए प्राकृतिक चयन के लिए शक्तिशाली दबाव प्रदर्शित करते हैं. मिसाल के तौर पर सिकल सेल एनीमिया एक अनुवांशिकी विकार है जो मलेरिया जैसी घातक बीमारी के लिए कुछ हद तक का प्रतिरोध प्रदान करता है. चूंकि विकार से पीड़ित के मलेरिया से बचने की संभावना ज्यादा थी, उनमें ऐसे बच्चों के पैदा करने की संभावना भी ज्यादा थी जिनमें सिकल सेल एनीमिया होता. पाया गया कि समय के साथ मलेरिया संभावित इलाकों में सिकल सेल एनीमिया से पीड़ितों की संख्या बढ़ी हुई पाई गई.

मानव जीनोम में बदलाव
अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों की टीम यह जानना चाहती थी कि ब्लैक प्लेग ने कैसे मानव जीनोम में बदलाव किया था. इस तरह की 30 से 50 प्रतिशत तक की जनसंख्या को खत्म करने वाली महामारी आती है तो ऐसे में इंसानों में बचने वाले चयन शुरू हो जाता है और जो इंसान इस बीमारी को फैलाते हैं वे खत्म होने लगते हैं. ऐसे में बचे हुए आगे की पीढ़ी में अपने जीन्स दे पाते हैं.

500 नमूनों का चयन
उस समय इस बीमारी से मरने वाले बड़ी मात्रा में दफनाए गए थे जिनकी कब्र में आज भी बहुत सारी हड्डियां विश्लेषण के लिए बची हैं. वैज्ञानिकों ने 100 साल के अंतराल पर ध्यान दिया और बीमारी से पहले, उसके दौरान और उसके बाद बच कर मरने वालों की कब्रों में 500 नमूने हासिल किए  और उनके जीनोम की तुलना कर पाया कि ब्लैकडेथ से केवल चार जीन का संबंध था

इन जीन्स में आक्रमण करने वाले रोगाणु से रक्षा करने वाले प्रोटीन पैदा होते हैं. जिन लोगों में से एक या अधिक जीन्स थे वे प्लेग से बचने में सफल रहे. इसकी पुष्चटि के लिए शोधकर्ताओं ने मानव कोशिकाओं का एक क्लचर बनाया जिसमें अलग अलग जीन्स की प्रोफाइल थी और उन्हें येरिसनिया पेस्टिस से संक्रमित किया गया. उन्होंने पाया कि उनके द्वारा खोजी गई जीन्स ही सबसे ज्यादा प्रतिरोधी साबित हुई थीं. अध्ययन दर्शाता है कि रोगाणु हमारे जीन विकास में कितनी बड़ी भूमिका निभा सकते हैं. इससे हमें आने वाले समय में महामारियों से निपटने का रास्ता भी मिल सकता है.

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