आज कुछ लोग भगवान परशुराम को स्मरण करते हुए अगली ही पंक्ति में रावण की जयजयकार करते हुए भी दिखाई देने लगे, तब विवश होकर कलम उठाना पड़ा.यह कैसा उत्साह जिसमें विवेक की मात्रा ही शून्य हो जाय.
परशुराम और रावण दोनों की जयजयकार एक साथ कैसे कर सकते हैं? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है , आप चाहें तो रावण को महाज्ञानी मान कर शिवताण्डव पढ़ महादेव को खुश करने की जुगत कर सकते हैं; लेकिन आपका महाज्ञानी तो अपने समग्र व्यक्तित्व में महाभिमानी भी है, मानवता को पददलित कर धर्म के विध्वंश का आदती आसुरी वृत्तियों का स्वामी भी… परशुराम के लिए राम सम्माननीय हैं क्योंकि उन्हें राम में धर्म रक्षा की साधना का भविष्य दिखायी देता है, परशुराम के लिए उनके गुरू शिवशंकर के धनुष पिनाक को सहेज रखने का स्थान क्षत्रिय राजा जनक की मिथिला दिखायी पड़ती है न कि रावण की लंका। यह अलग प्रसंग है कि परशुराम महादेव की आज्ञा से कार्तवीर्य अर्जुन की कैद से रावण को छुड़ा जीवनदान देते हैं लेकिन उसके अभिमान और पराक्रम से न तो विचलित होते हैं न ही प्रभावित।
रावण अंततः परशुराम द्वारा सूर्यवंशी श्रीराम को प्रदत्त धनुष से ही मारा जाता है। रामावतार हो गया यह जान परशुराम अराजकता के अंत की नियति सुनिश्चित देख निश्चिन्त हो साधनार्थ निकल पड़ते हैं । स्पष्ट है – परशुराम ने राम में अपनी छवि देखी ,रावण में नहीं। तो फिर इन विरोधाभाषों में कम से कम परशुराम के साथ रावण को तो न याद करिए। दोनों का जयकार एक साथ केवल इसलिए लगाना चाहते हैं कि दोनों ने ब्राह्मण कुल में जन्म लिया था?.. तब तो और भी असंगत है… क्योंकि परशुराम पैदा तो ब्राह्मण कुल में हुए लेकिन आप हाथ मे परशु लिए जिस रूप पर मोहित हो उनकी पूजा कर रहे हैं वो उनका क्षत्रिय रूप है और रावण पैदा तो ब्राह्मण कुल में हुआ लेकिन वह तो आसुरी सभ्यता का पोषक और पूरी मनुष्यता का घोर शत्रु है, ब्राह्मण धर्म तथा संस्कृति का तो और भी …
अलग-अलग ऐतिहासिक – पौराणिक चरित्रों को एक ही फ्रेम में मढ़ कर पूजा करने वाले लोग आज केवल अपने मिथ्या जाति अभिमान को तुष्ट करना चाहते हैं । वो केवल अज्ञानी ही नहीं अपितु इतिहास, सभ्यता ,संस्कृति व मानव मूल्यों के जघन्य अपराधी भी हैं।
लेकिन यह समस्या केवल परशुराम और रावण के बेमेल-मेल तक ही संकुचित होती तो और बात थी ; अब तो हर जाति ने अपनी सुविधा के महापुरुष गढ़ लिये हैं। उसके लिए मूल चरित्रों में कितना परिवर्तन और महापुरुषों के व्यक्तित्व की समग्रता से कितना खिलवाड़ किया जा रहा है , इसके दुष्परिणामों का आकलन तो समय करेगा ..लेकिन जिन लोगों ने आज समय खराब कर दिया है – वो कभी बुद्ध को तो कभी विश्वकर्मा को , कभी विवेकानंद को कभी सरदार पटेल को , कोई शिवाजी को तो कोई सुहेलदेव को, कोई महाराणा प्रताप को तो कोई चन्द्रगुत मौर्य को, कोई रविदास को तो कोई वाल्मीकि को न केवल पकड़कर बल्कि अपनी कुण्ठा-पाश में जकड़कर इस कदर एकाधिकार जताने की कोशिश कर रहा है कि आगामी भविष्य में सामान्य समझ का आदमी इन्हें जाति का नेता मान सामूहिक श्रद्धा -स्मरण से भी संकोच करने लगे।
सुन्दर सभ्यताएं और समृद्ध संस्कृतियां अपनी माटी से उपजे महापुरुषों की साधना- ज्योति में सदैव प्रदीप्त होती हैं। मानवता को सर्वश्रेष्ठ समर्पित कर इतिहास में अपना अमिट हस्ताक्षर अंकित कराने वाले महापुरूष जन्म भले ही किसी विशेष देश ,काल,परिवेश,भाषा,जाति, पंथ,सम्प्रदाय आदि में लेते हैं परंतु इन सीमाओं की संकुचित दीवारों को लांघकर ही वे मानव कल्याण की प्रचण्ड साधना से प्रभाषित होते हैं; किन्तु आज के समय की यह विचित्र विडम्बना है कि जिन्होंने रूढ़ि के बंधनों को तोड़कर पहचान बनायी है , उन्हें चंद कुंठित लोग जाति, भाषा,प्रान्त,पंथ और संप्रदाय के बंधनों में जकड़कर उन्हें समझने और समझाने का स्वांग कर रहे हैं।
राजसत्ता के लोभ में शस्त्र उठाने वाले व्यक्ति का नाम परशुराम नहीं हो सकता । जब धर्म की रक्षा करने में शास्त्र स्वयं समर्थ न रह जाय , तब शस्त्र से धर्म की रक्षा करने की युक्ति के निमित्त किसी चमत्कार की राहें न देख , स्वयं युद्ध में अवतरित होने की साधना का नाम है -परशुराम अवतार। ऋषि जमदग्नि की हत्या सहस्रबाहु के द्वारा करा दिए जाने की कहानी राजसत्ता के धर्मभ्रष्ट होने की कहानी है,जो अराजकता के उस बीज से निकलती है जिसमें सत्ता निरंकुशता की हदों को पार कर नृशंशता पूर्वक सनातन संस्कृति के मूल- गुरुकुलों को ध्वस्त करने और जलाने की कोशिशें शुरू कर देती है। शास्त्र पर आसन्न संकट को शस्त्र से संतुलित करने वाली अभिनव विद्या के विद्यार्थी का नाम है-परशुराम !
जिस क्षत्रिय सत्ता को सनातन संस्कृति की रक्षा का दायित्व था , उस हैहयवंशीय सहस्रार्जुन और उसके समानधर्मा विप्लवी साथियों का दमन कर परशुराम ने भविष्य को सुरक्षा की आश्वस्ति दी।अत्याचार की जड़ें गहरी जा चुकी थीं इसलिए परशुराम को इस भूमिका में देर तक रुके रह कर सहस्रार्जुन के अतिरिक्त उसके पूरे समूह को बहुत बार युद्ध में मारकर मूलोच्छेद की यह घटना सामाजिक सौमनस्य के शत्रुओं द्वारा क्षत्रिय विरोधी परशुराम की छवि निर्माण में प्रयोग की जाती है। शास्त्र के रक्षार्थ शस्त्र की शरण मे जाने वाला भला क्षत्रिय विरोधी कैसे हो सकता है ?
‘रामचरित मानस’ के परशुराम स्वयं अपने मुख से कहते हैं-
” भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्हि।
विपुल बार महि देवन्ह दीन्हि।।
अर्थ कितना स्पष्ट है कि – अपने पराक्रम से आततायी शासकों का नाश किया किन्तु राजलालसा कदापि नहीं पाली। यदि क्षत्रियों से परशुराम की प्रतिस्पर्धा होती तो भूमि को भूपविहीन करने पर खुद सिंहासन पर बैठ जाते। लेकिन “विपुल बार महि देवन्ह दीन्हि” वक्तव्य से और भी स्पष्ट कर दिया कि राज्य को पुनः ऐसे शासकों के हाथ में सौंप दिया जिनमें देवत्व के रक्षा का संकल्प हो।
(अब देवता तो स्वर्ग से पृथ्वी पर राज करने आने से रहे और किसी ब्राह्मण को परशुराम ने सिंहासन पर बैठाया नहीं)।
परशुराम के पराक्रम ने ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों वर्णों में अपनी भूमिका पृथक-पृथक कालखण्ड में बखूबी निभायी। परिस्थितियों पर शस्त्र के बल से सदैव नियंत्रण नहीं रखा जा सकता इसे समझकर पुनः नए युग के लिए इन्होंने भीष्म, द्रोण और कर्ण आदि अनेक योद्धाओं को अलग -अलग समय पर दीक्षित कर अपने आचार्य धर्म का पालन भी किया। परशुराम के अंदर आक्रोश तो था किन्तु अभिमान नहीं। शिवधनुष भंजन के बाद आक्रोशित परशुराम जब जान जाते हैं कि सच में रामावतार हो चुका है तो वे इसे विनम्रतापूर्वक स्वीकार कर अपना सिद्ध धनुष इच्छवाकु वंशज श्रीराम को सौंप , निश्चिन्त हो कर नियति निर्धारित अपनी अगली भूमिकाओं के लिए प्रस्थान कर जाते हैं।
समय की गति पर मजबूत पकड़ रखने वाले परशुराम द्वापर में यदुकुल नन्दन श्रीकृष्ण को चक्र सुदर्शन जैसे दिव्य अस्त्र भेंट कर ‘धर्मसंस्थापनार्थ’ सुसज्जित करते हैं।
इतने तथ्यों के बाद भी कुछ लोग परशुराम और रावण को एक साथ याद करने की गलतियां करें तो यह संयोग नहीं अपितु असाध्य रोग कहा जायेगा , जो जातिकुण्ठा जन्य और जघन्य है….
क्योंकि- जातियों की जागीर नहीं हैं महापुरुष!!