बिहार महागठबंधन में चुनावी सरगर्मी के बीच सीटों के बंटवारे और नेतृत्व को लेकर खींचतान जारी है। कांग्रेस अधिक सीटों की मांग कर रही है जबकि राजद अपने रुख पर अड़ा है। नेतृत्व के मुद्दे पर भी सहमति नहीं बन पा रही है जिससे गठबंधन में विश्वास का संकट गहराता जा रहा है।

पटना। बिहार विधानसभा चुनाव की घोषणा हो चुकी है। जिस वक्त दलों को एकजुट होकर चुनावी मैदान में उतरने की रणनीति बनानी चाहिए वैसे समय में बिहार का महागठबंधन सीटों के बंटवारे के साथ मुख्यमंत्री पद के विवाद में फंसा है। समय के साथ खींचतान का पटाक्षेप होने की बजाय यह विवाद बढ़ता ही जा रहा है। महागठबंधन में सीट बंटवारे और नेतृत्व को लेकर जारी यह टकराव चुनावी समीकरणों पर गहरा असर डाल सकता है।
महागठबंधन में यह विवाद किसी एक दल की वजह से नहीं बल्कि तमाम सहयोगी दलों की वजह से है। कांग्रेस अपने पुराने स्ट्राइक रेट को दरकिनार कर अधिक सीटों की मांग कर रही है। भाकपा माले और विकासशील इंसान पार्टी भी अधिक सीटों की मांग पर अड़े हैं।
जबकि महागठबंधन का प्रमुख सहयोगी राजद घटक दलों की इस मांग पर सहमत नहीं। बात स्थानीय स्तर पर होती तो एक बारगी को यह विवाद शायद सुलझ भी जाता परंतु, कांग्रेस आलाकमान इस बार सहयोगी नहीं बल्कि समान भागीदार के रूप में चुनाव लडऩा चाहता है।
सूत्रों की माने तो कांग्रेस ने सीटों की चर्चा शुरू होते ही राजद के समक्ष 70-75 सीटों की मांग रखी थी। जबकि राजद कांग्रेस को अधिक से अधिक 50-55 सीटें ही देने पर ह सहमत था। इतनी ही सीटों पर बात आगे भी बढ़ी, लेकिन अब कांग्रेस ने सहयोगी दल को एक और सूची सौंप दी है। पुरानी और नई सूची को जोड़ दिया जाए तो सीटों की यह संख्या वापस 70-75 पर पहुंच जाती है।
राजद बार-बार उसे 2015 और 2020 के चुनाव का हवाला देकर अधिकतम 50 या 52 सीटों से अधिक देने को तैयार नहीं। बता दें कि 2015 के चुनाव में कांग्रेस ने 41 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 27 पर जीत दर्ज कराई थी। परंतु 2020 में 70 सीटों पर मुकाबला करने के बाद भी उसे जीत सिर्फ 19 सीटों पर मिली।
बावजूद, कांग्रेस नेतृत्व लगातार यह दावा कर रहा है कि कांग्रेस इस बार संगठनात्मक रूप से मजबूत हुई है और उसके नेताओं का ग्राउंड नेटवर्क सुधरा है। कांग्रेस नेताओं का तर्क है कि जब महागठबंधन में वीआइपी और वाम दलों को भी बराबर प्रतिनिधित्व देने की बात हो रही है, तो कांग्रेस को उसकी हैसियत के अनुरूप सम्मानजनक हिस्सेदारी मिलनी चाहिए।
कांग्रेस जहां खुद को बराबरी की स्थिति में देखना चाहती है, वहीं राजद अपनी सर्वोच्चता से पीछे हटने को तैयार नहीं। उसका तर्क है कि भूमि उसकी है, संघर्ष उसका है, इसलिए सीटों पर पहला अधिकार उसका है।
यही नहीं महागठबंधन में नेतृत्व के चेहरे को लेकर भी कांग्रेस अन्य सहयोगियों से एकमत नहीं हो पा रही। वीआइपी के साथ ही वाम दलों को तेजस्वी का नेतृत्व स्वीकार है परंतु, कांग्रेस इसके लिए तैयार नहीं। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी हो फिर बिहार प्रभारी कृष्णा अल्लावारू या प्रदेश अध्यक्ष राजेश राम। इन नेताओं का तर्क है कि तेजस्वी राजद की ओर मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हो सकते हैं।
महागठबंधन में चेहरे का चयन चुनाव में मिले वोटों के आधार पर ही होगा। कांग्रेस वरिष्ठ नेता उदय राज तक ने तेजस्वी के मुख्यमंत्री पद की दावेदारी को सिरे से खारिज कर दिया है। हालांकि तेजस्वी यादव को गठबंधन का स्वाभाविक चेहरा मानने पर राजद अडिग है। महागठबंधन में यह खींचतान केवल सीटों तक सीमित नहीं है बल्कि विश्वास के संकट की शुरुआत भी है।
राजद को भी डर है कि अगर कांग्रेस सीटों के बंटवारे या नेतृत्व पर ज्यादा दबाव बनाएगी तो वाम दलों और छोटे सहयोगी दलों का संतुलन बिगड़ सकता है। बहरहाल महागठबंधन में ऊपर से यह दिखाने की कोशिश है कि यहां सबकुछ सामान्य है परंतु जब तब सीट और नेतृत्व पर दल सहमत नहीं हो जाते कयास और आकलन को दौर जारी ही रहेगा।